श्री रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं-
*सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥*
*सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा॥14॥*
भावार्थ:-जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं॥14॥
*मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥*
*काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥15॥*
भावार्थ:-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥15॥
*प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥*
*बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥16॥*
भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात् वे अपार हैं)॥16॥
चौपाई :
*ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥*
*पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥17॥*
भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है॥17॥
*अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥*
*तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी॥18॥*
भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥18॥
*जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका॥19॥*
भावार्थ:-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ॥19॥
दोहा :
*एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।*
*पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥121 क॥*
भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?॥121 (क)॥
*नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।*
*भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान॥121 ख॥*
भावार्थ:-नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते॥121 (ख)॥
चौपाई :
*एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥*
*मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥*
भावार्थ:-इस प्रकार जगत् में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही॥1॥
*जाने ते छीजहिं कछु पापी। नास न पावहिं जन परितापी॥*
*बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे। मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे॥2॥*
भावार्थ:-प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥2॥
*राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥*
*सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥3॥*
भावार्थ:-यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो।
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